बीबीसी में छपे इस लेख में संवाददाता फ़ैसल मोहम्मद अली ने एक सवाल किआ “ईद पर इस बार ‘प्रेमचंद का हामिद’ क्यों नहीं जाएगा ईदगाह”. मेरा ये प्रयास है इस प्रश्न का उत्तर तलाशने का।

आइये पहले “ईदगाह” को जाने। ईदगाह उपन्‍यासकार सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की उर्दू में लिखी सुप्रसिद्ध कहानियों में एक है। यह प्रेमचंद की विशेषताओं को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिनिधि कहानी है। इस कहानी में ईद जैसे महत्त्वपूर्ण त्योहार को आधार बनाकर ग्रामीण मुस्लिम जीवन का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया गया है। अनाथ बालक हामिद का चरित्र हमें बताता है कि अभाव उम्र से पहले बच्चों में कैसे बड़ों जैसी समझदारी पैदा कर देता है। मेले में हामिद अपनी हर चाह पर संयम रखने में विजयी होता है। साथ ही रुस्तमे हिंद चिमटे के माध्यम से प्रेमचंद ने श्रम के सौंदर्य एवं महत्त्व को भी उद्घाटित किया है।

आईये अब आज के परिवेश में ईदगाह की बात करते हैं, “हमीदों” की बात करते हैं। “चौधरी कायम अली” की बात करते हैं। प्रेमचंदजी को शायद ही ये पता हो के उनके चौधरी कायम अली आज भी कायम हैं, जो अपने कुबेर धन गिनते हुए खुश रहते है। आज भी कईओं की ईद और मुहर्रम कायम अली के इनायत पे टिकी है। उनके जिन्न आज भी उनके सेवा में लगे हैं। उनका मन्न हो तो वो जुमराती का खोया हुआ बछवा भी अपने जिन्न की मदद से ढून्ढ लाएं, और उनकी इच्छा ना हो तो बछवा क्या इंसान को भी भूके मरने छोड़ दें।

और हामिद! हामिद तो आज भी आशावान है। ईदगाह की ये पंक्तियाँ “उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आए, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी। हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है-तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले जाऊंगा। बिलकुल न डरना” मानो आज भी हामिद के ही चरित्र को बयान करती हो।

ऐसे अनगिनत हमीद आज अपनी विपन्नता से बेख़बर लॉकडाउन की हर एक चुनौती, को दरकिनार करते हुए संतोष और धैर्य में मगन अपना कर्त्यवनिर्वाहन करते चले जा रहें है। वो अपने त्याग, सदभाव और अपार विवेक से हर रोज़ चिमटा जैसी ख़ुशी और संतोष पा रहें हैं।अपनी समझ से कुल तीन पैसे को इतनी बड़ी पूंजी बना लेते है कि उससे दुनिया का सबसे बड़ा खजाना खरीदा जा सकता है. ऐसे ही कुछ हमीदों का उदहारण नीचे है :

आज का हामिद पिता को गुरुग्राम से साइकिल पर लादकर दरभंगा ले जाने वाली ज्योति है।

वो आज भी दादी को उसी प्यार से गले लगा कर सम्मान देता है।

ट्रेन हो या हाईवे, हामिद उसे ईदगाह समझ वहाँ अपनी इबादत को खड़ा है। इबादत जो सिखाती है इंसानियत। हामिद को पता है, के अगर वो अपने सिर्फ तीन पैसे से एक हिंदुस्तानी का भी पेट भर देगा तो उसकी ईदी फिर से रुस्तम-ए-हिन्द होगी। फिर ना महमूद ने सिपाही, ना मोहसिन के भिश्ती और ना ही नूरे के वकील उसका मुकाबला कर पाएंगे।

हामिद जो इस लॉक डाउन अपने ईदी से दूसरों का भला कर रहे है. ईदगाह में सही ही लिखा है मुंशी जी ने “मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं“.

ईदगाह तो एक प्रतीक मात्र है। ईदगाह में जो सहानुभूति, धैर्य और संतोष सन्देश है, वो हामिद को बखूबी याद है। देश और समाज हित में वो ईदगाह नहीं जा कर भी वो ईद की उतनी ही ख़ुशी महसूस कर रहा है।